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अ॒भि॒ख्या नो॑ मघव॒न्नाध॑माना॒न्त्सखे॑ बो॒धि व॑सुपते॒ सखी॑नाम् । रणं॑ कृधि रणकृत्सत्यशु॒ष्माभ॑क्ते चि॒दा भ॑जा रा॒ये अ॒स्मान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhikhyā no maghavan nādhamānān sakhe bodhi vasupate sakhīnām | raṇaṁ kṛdhi raṇakṛt satyaśuṣmābhakte cid ā bhajā rāye asmān ||

पद पाठ

अ॒भि॒ऽख्या । नः॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । नाध॑मानान् । सखे॑ । बो॒धि । व॒सु॒ऽप॒ते॒ । सखी॑नाम् । रण॑म् । कृ॒धि॒ । र॒ण॒ऽकृ॒त् । स॒त्य॒ऽशु॒ष्म॒ । अभ॑क्ते । चि॒त् । आ । भ॒ज॒ । रा॒ये । अ॒स्मान् ॥ १०.११२.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:112» मन्त्र:10 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:10


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वसुपते) हे वसुपालक तुझमें बसनेवालों के पालक (मघवन्) ऐश्वर्यवाले (सखे) हे मित्र परमात्मन् ! (नः नाधमानान्) हम याचना करते हुओं को (अभिख्या) आभिमुख्यरूप से देख (सखीनां बोधि) हमें अपने मित्रों को बोध दे या हमें जान (रणकृत्) हमारे विरोधी कामादियों से युद्ध करनेवाले ! (रणम्-कृधि) तू युद्ध कर (सत्यशुष्म) हे सत्यबलवाले-नित्य बलवन् ! (अभक्ते चित्) जो धन तूने किसी के लिये भक्त नहीं किया-नहीं दिया, उस अपने आनन्दरसरूप धन में (राये) ऐश्वर्य में (अस्मान्) हमें (आ भज) भलीभाँति भागी बना ॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा में जो बसने के अधिकारी हैं, उनकी वह रक्षा करता और उन्हें अपना मित्र मान करके बोध देता है-ज्ञान देता है और देखता है, उनके अन्दर के कामादि शत्रुओं को नष्ट करता है और जो अलौकिक उसका आनन्दरूप धन है, उसे संसारीजन को नहीं देता, किन्तु उपासक को उसका भागी बनाता है ॥१०॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वसुपते मघवन् सखे) हे वसुपालक ऐश्वर्यवन् सखे परमात्मन् ! (नः-नाधमानान्-अभिख्या) अस्मान् याचमानान्-आभिमुख्येन पश्य (सखीनां बोधि) सखीन् ‘व्यत्ययेन षष्ठी’ बोधय यद्वाऽस्मान् जानीहि, (रणकृत्-रणं कृधि) युद्धकर्त्तः ! अस्मद्विरोधिभिः कामादिभिः सह युद्धं कुरु (सत्यशुष्म) हे सत्यबलवन्-अविनश्वरबलवन् ! (अभक्ते चित्) यद् धनं न कस्मै चित् भक्तं कृतं-तस्मिन्नपि स्वानन्दस्वरूपधने (राये-अस्मान्-आ भज) धनाय-अस्मान् समन्ताद्भज भागिनः कुरु ॥१०॥